Wednesday, January 26, 2011

जब राजा भोज को सम्मान के लिए लग गये एक हजार साल गये तब वागदेवी को लाने में लगेगें कितने हजार साल









जब राजा भोज को सम्मान के लिए लग गये एक हजार साल
गये तब वागदेवी को लाने में लगेगें कितने हजार साल
रामकिशोर पंवार की विशेष रिर्पोट
मध्यप्रदेश का गुजराज एवं राजस्थान से लगा सीमावर्ती जिला धार जिला किसी जमाने में कला एंव संस्कृति का केन्द्र था. महान पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य के वशंज राजा भोज ने अपने पुरखों की तरह कला एंव संस्कृति को एक नया आयाम दिया. राजा भोज द्धारा अपनी अपनी अराध्य देवी वाग्देवी की पूजा अर्चना के लिए स्थापित भोजशाला आज भी कला संस्कृति की बेजोड मिसाल है. राजा भोज ने जो ताल बनवाया था उस झील के शहर में राजा भोज को मिलने वाले कथित सम्मान के लिए उन्हे एक दो नहीं बल्कि पूरे एक हजार साल लग गये। प्रदेश सरकार को अचानक राजा भोज याद आ गये। गंगू तेली की घानी में राजा भोज के मान - सम्मान को रौदंती भाजपा को ही राजा को उसके ही राज्य में मान सम्मान दिलाने के बरसो इंतजार करना पडा। जिस राजा भोजपुर - भोजपाल जो बाद में भोपाल कहलाया उसके बडे तालाब के बीचो - बीच खडे रहने के लिए इतना इंतजार करना पडा कर राजा की प्रतिमा के आंखो से झर - झर कर आंसु बहने लगे लेकिन भगवा सरकार को पत्थरो से आंसुओ का बहना - मुर्तियो का दुध पीना अधंविश्वास सा लगता है और लगे भी क्यों न जो सरकार राम के नाम पर सत्ता हासिल करती है वह सत्ता में आने के बाद राम को ही भूल जाती है। ऐसे में कल तक ब्रिट्रेन के म्यूजियम में पडी राजा भोज की कुलदेवी मां सरस्वती की मूर्ति स्वदेश लाने की वकालत करने वाली भाजपा के मुख्यमंत्री ब्रिट्रेन जाने के बाद मूर्ति को देखना तक भूल गये। राजा भोज के राज में स्थित भाईचारे की मिसाल बना भोजपाल आज का भोपाल से कई गुणा कला संस्कृति का केन्द्र रही धार नगरी है जो राजा भोज की पहचान है। राजा भोज की भोजशाला में आज भी स्वर्गीय इकबाल की पंक्तियां सटीक बैठती है कि मजहब नहीं सीखता आपस में बैर रखना। आज भी धार की इस एतिहासिक भोजशाला बनाम कमाल मौला मस्जी़द का में पुनः स्थापित होने के लिए राजा भोज की कुलदेवी को प्रदेश सरकार की राह देखते - देखते बरसो गुजर गये है। अग्रेंजो द्वारा धार से ले गई राजा भोज की कुलदेवी की प्रतिमा को स्वदेश लाने का जितनी बार भाजपा वादा करती आई है वह उतनी ही बार राजा भोज की कुलदेवी को भूली है। आज भले राजा भोज की भोजशाला सियासी विवाद का हिस्सा बनी हुई है लेकिन राजा भोज की कुलदेवी मां वाग्यदेवी सरस्वती के स्वदेश लाने पर किसी को विवाद नहीं है। वैसे देखा जाये तो भोजशाला के स्थान का विवाद आज का नहीं है. करीब छह सौ साल से भी अधिक पुराना एक ताबूत में दफन किया गया हुआ जिन्न है। जिसे हर कोई मजहब की आड में ताबूत से बाहर निकाल कर अपना उल्लू साधने में लग जाता है। इस भोजशाला के लिए मां बाग्देवी के उपासक उसके संरक्षण तथा आधिपत्य के लिए कानूनी दांवपेचों की लड़ाई लड रहे है। यह विवाद उस समय पैदा हुआ जब तत्कालीन दीवान नाड़कर ने यह तस्दीक की थी कि भोजशाला में तथा कथित नमाज पढ़ी जाती थी एंव इस स्थान पर किसी कमाल मौला नामक फकीर की तथा कथित कब्र है। इन बातों की तथाकथित पुष्टि होने पर वर्षो पुराने इस विवाद को पुनः हवा मिली थी लेकिन कोई भी भोजशाला की राम कहानी लेकर बैठ जाता है पर वह बाग्यदेवी को हर बार भूल जाता है।
    अयोध्य में विवादित ढंाचा ढहाए जाने के बाद बीते कई दशक से तो यहंा प्रतिवर्ष बसंत पंचमी का दिन दहशत में बीतता है। कब हिन्दु - मुस्लिम सौहार्द साम्प्रदायिकता का रंग ले ले इस बात की शंका - कुशंका हमेशा बनी रहती है। प्रदेश भाजपा सरकार रहने पर राजा भोज की धारा नगरी वर्तमान धार शहर में राजा भोजशाला की तथा कथित मुक्ति को लेकर कई बार हिन्दुवादी संगठनो की यहां पर रीति - नीति बनती है लेकिन कोई भी हिन्दु नेता उस मूर्ति के लिए कभी कोई नीति - रीति नहीं बनाता है। राजा भोज की बसाई धारा नगरी में कई बार इस बात को लेकर प्रयास भी हुये कि इस नगरी में सम्प्रदायिकता की आग को भडकाने वाली धारा को बहाया जाय लेकिन वह आज तक नहीं बह सकी है। कोई माने या न माने लेकिन सच आइने की तरह साफ है कि धार नगरी में राजा भोज की नीति - रीति आज भी राज पाट करती है।
            इतिहास के पन्नो को यदि हम पलटते है तो हमे पता चलता है कि पंवार राजपूतों के शीर्ष राजा भोज द्वारा बसाई धारा नगरी में इस वंशज के महान सम्राट राजा भोज ने 11 वीं शताब्दी में भोजशाला का निर्माण करवाया था। राजा भोज का राज भोजपाल वर्तमान भोपाल एवं भोजपुर तक फैला हुआ था। धार गजेटियर में यह उल्लेख मिलता है कि इस भोजशाला का निर्माण सन् 1034 में हुआ था। 1334 में जब मुस्लिम शासक यहां की सत्ता पर काबिज थे। उस दौर में कमाल मौला नामक संत ने इसे मस्जिद में तब्दील करने का प्रयास किया था। राजा भोज के कार्यकाल में उनके अवसान के बाद उनके कुल के पंवार राजपूतो का काफिला धर्मपरिवर्तन के डर से धार छोड कर निकल पडा जो नर्मदा को पार करके पंवारखेडा में बसा । यहां से पंवारो का काफिला बैतूल - छिन्दवाडा - बालाघाट - सिवनी - गोंदिया - नागपुर होते हुये कर्नाटक तक जा पहुंचा। कुछ पंवार राजपूतो द्वारा धार छोड कर जाने के बाद भी पंवारो का धार - देवास पर राज्य कायम रहा। बीती सदी में सन् 1904 में इसे राज्य संरक्षित पुरातत्वीय स्मारक घोषित किया गया। इसके बाद सन् 1935 में जब धार में आनंद राव पवार राजा थे, तब उनके दीवान नाड़कर ने एक गजट प्रकाशित कर इस बात की तस्दीक की कि यहां जिस तरह नमाज पढ़ी जा रही है वह जारी रहेगी। दरअसल उस समय राज्य के लोक निमार्ण विभाग ने भोजशाला मस्जिद कमाल मौला और कमाल मौला के मकबरे के बाहर भोजशाला को तख्ती लगा दी थी। इस पर मुस्लिम समुदाय ने आपत्ति की थी। तब 24 अगस्त 1935 को गजट प्रकाशित किया गया था। इस गजट के बिन्दु क्रमांक 973 में इस बात का उल्लेख है कि जो नमाज पढ़ी जा रही है वह जारी रहेगी और यह मस्जिद है और आइंदा भी मस्जिद रहेगी। दीवान नाड़कर के इस तरह के गजट प्रकाशन से दोनों समुदाय खफा हो गयें। हिन्दु समुदाय का मानना है कि उन्होने अपने अधिकारों का अतिक्रमण कर कतिपय मुस्लिमों के दबाव में वह गजट प्रकाशित किया उन्हें गजट प्रकाशन का अधिकार नही था क्योकि उस समय धार के राजा आनंद राव पवार अवयस्क थे और उनकी मदद के लिए कैबिनेट बनी थी। इस तरह का कोई भी फैसला कैबिनेट को लेना था , दूसरी ओर मुस्लिम समाज की आपत्ति है कि दीवान नाड़कर ने ही यहां भोजशाला के नाम की तख्ती लगाकर मस्जिद को भोजशाला बताया। इसके बाद बड़ी मुश्कील से इस विवाद को अग्रेंजी हुकुमत ने इस विवाद को शांत करवाया लेकिन यह तभी सभंव हुआ जब राजा दरबार में दोनो मजहब के लोगो के बीच सुलह हुई। अग्रेंजी हुकुमत के बदलते ही सन् 1951 में राजा भोज की इस भोजशाला को पुरातन और ऐतिहासिक स्मारक और पुरातत्व अधिनियम के दायरें में लाकर इस अधिनियम के क्रम 90 पर यह इमारत भोजशाला एवं कमाल मौला मस्जिद के नाम से अंकित की गई। इसके बाद सन् 1962 में धार के प्रथम अतिरक्त न्यायाधीश के समक्ष मुस्लिम समाज की ओर से अमीरूदीन वल्द जबीरूदीन ठेकेदार ने एक वाद दायर किया इसमें प्रतिवादी केन्द्र व राज्य सरकार को बनाया गया। इसमें मुस्लिम समाज ने दावा किया कि उक्त इमारत मस्जिद है यहां रोजाना नमाज पढ़ी जा रही हैं इसे 1307 में अलाउदीन खिलजी के जमाने में बनाया गया था इस वाद के सिलसिले में केन्द्र व राज्य सरकार की ओर से भी दावा को नकारते हुए कहा गया था कि भोजशाला राजा भोज के समय थी। यहां संस्कृत का अध्ययन होता था व्याकरण के सूत्र अभी भी खंभों पर अंकित है। यह शासन की सम्पति थी। यहां लगी मां बाग् देवी सरस्वती की प्रतिमा वर्तमान में लंदन के केन्द्रीय संग्रहालय में मौजूद है। उसे स्वदेश लाने के लिए आज तक किसी ने भी न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटाया। भोजशाला के पास ही एक मकबरा भी है जो कमाल मौला की कब्र मकबरा के नाम से जाना जाता हैं। इस भोजशाला का अधिग्रहण केन्द्र सरकार ने सन् 1904 में किया था। यह मामला सन् 1965 तक चलता रहा बाद में वादी की लगातार अनुपस्थिति के कारण मामला खारिज कर दिया गया। भारतीय जनता पार्टी के शासन काल में भोज उत्सव की शुरूआत हुई। उस समय स्थानीय विधायक विक्रम वर्मा प्रदेश मंत्रिमंडल के सदस्य थे। उन्होंने संस्कृत अकादमी के बैनर तले यहां विचार गोष्ठी आयोजित करवाई थी। सबसे आश्चर्य जनक तथ्य को दोनो प़ा नकारते चले आ रहे है वह यह है कि राजा भोज के द्वारा स्थापित भोजशाला को बनाने वाले पंवार राजवंश को आज तक इस विवाद से परे रखा जाना। उस समय तत्कालिन महाराजा आनंदराव जी पंवार के नाबालिग होने की स्थिति में जब केबिनेट कोई हल नहीं कर पाई तब उसके पूरखों द्वारा स्थापित भोजशाला को अगर अग्रेंजी हुकुमत चाहती जो राजा साहब की पैतृक सम्पति मान कर उन्हे ही सौप देती तब भले ही राजा स्व विवेक से जिसे चाहे उसे देते क्योकि दान में दी गई किसी भी प्रकार की सम्पति का जब हस्तांतरण हो जाता है तब वह विवाद का केन्द्र नहीं रहती। आज भी इस बरसों पुराने विवाद का एक सूत्रिय हल है वह यह कि पंवार राजवंश मौला कमाल के पहले भी स्थापित था तथा बाद में भी तब इस बात पर बेमतलब की बहस करने से क्या फायदा......! राजा भोज की इस पाठशाला को पंवार राजवंश की पैतृक सम्पति मान कर उसे राजवंश के उत्तराधिकारी युवराज डा. करण सिंह राजे को सौप कर उसमें लंदन से मां बाग्देवी की प्रतिमा को स्थापित करवा कर उसे मां कालिका देवी ट्रस्ट  की तरह पंजीकृत करवा कर उसे सभी आम जनता के दर्शनार्थ के लिए सौप दी जायें. मध्यप्रदेश के रामभक्त एवं स्वंय को हिन्दुवादी नेता समझने वाले संघ की विचारधारा से जुडे प्रदेश के मुखिया अपने मुख्यमंत्री काल में लंदन जाने के बाद भी राजा भोज की कुलदेवी मां बाग देवी की प्रतिमा को उस संग्राहलय से नहीं ला पायें जहां पर वह आज भी अपने वतन को आने को पलके पावडे बिछाये इंतजार कर रही है। कहने को हर कोई शेख चिल्ली बन जाता है लकिन जब बारी आती है तो वहीं भिगी बिल्ली बन जाता है। पंवारो के इतिहास की सबसे बडी प्रमाणिक धरोहर राजा भोज की कुलदेवी की प्रतिमा कब धार में तथा धार से धर्मान्तरण के डर से भागे पंवार वापस अपने वतन को लौटेगं यह सब कह पाना अतीत के घेरे में है। अब यदि प्रदेश की भाजपा सरकार राजा भोज को मान सम्मान देने के लिए आगे आई है तो उसका स्वागत करना चाहिये क्योकि देर सबेर आखिर अक्ल आई तो सही। अब प्रदेश सरकार को धार का भी मान - सम्मान को लौटाने के लिए आगे आना चाहिये। आज जरूरत इस बात की है कि धार को कला एवं संस्कृति का केन्द्र बना कर उसे पुनः उस शिखर पर पहंुचाये जहां पर वह थी और इसके लिए सबसे जरूरी है कि मां वाग्यदेवी की मूर्ति को स्वदेश वापस लाने का इमानदारी पूर्वक प्रयास किया जाये।

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